सोमवार, 9 जून 2008

फिर से सुबह होगी

अपनी ही जड़ोसे उखड कर पेड़ की क्या हालत होती है,सोचा है आपने,नही क्योकि हमे इसका अनुभव ही नही,भारत पक विभाजन की तीस इसके भुक्तभोगी ही समझ सकते है जिसके सगे रिश्ते नाते के लोग दुसरे देश मे रह गए और उनके बीच था एक कंटीली तारो वाला घेरा , कमोबेश आज वही स्थिति उन आदिवासियों की हो गई जो शिविर मे रह रहे है ,खेत घर द्वार सब पास मे लेकिन शरणार्थी की जिन्दगी जीने के बेबस लाचार,दो पाटो के बीच पीस रहे है, उनकी जिन्दगी की सुबह और शाम वही होती है,घने जंगलो मे विचारने वाले इन आदिवासियों की स्थिति बिलो मे कैद चूहे जैसी हो गई है,अब वो सिर्फ़ आस्मान मे सुरुज को उगता हुआ एवम अस्त होता हुआ देख सकते है ,आख़िर क्या दोष है इन आदिवासियों का,क्यो इन्हे ये दिन देखना पड़ रहा ,क्या लोगो को राजनीतिक रोटी सकने के लिए सिर्फ़ आदिवासी ही मिलते है,क्या फिर से वो सुबह आयेगी जब पंछे की भांति मुक्त गगन मे वे उड़ सके ,

रविवार, 1 जून 2008

छत्तीसगढ़ की संस्कृति मे उभरते नासूर

छत्तीसगढ़ की संस्कृति पूर्णतः ग्रामीण संस्कृति है ,सदियों से यहाँ के लोग सामाजिक सहिष्णुता सदभाव पूर्वक निवास कर रहे है ,पर आज की क्षुद्र राजनीतिक हितों ने इन वर्गों को बाटने का कार्य कर रही , जातिगत सम्प्रदाय धर्म के आधार पर इन्हे विभाजित किया जा रहा है ,विभिन्न जाति के जातिगत नेता भी इन्हे भुनाने के लिए राजनीतिक दलों के कारिंदा बन कर कार्य कर रहे ,न तो इन्हे अपने समाज की फिक्र है न उस राजनीतिक दल के सिद्धांतो से इनका कोई वास्ता है ये सिर्फ़ राजनीतिक अवसर वाद के नमूने मात्र है ,खासकर यह परिपाटी शोषित दलित जातियों मे कुछ ज्यादा ही है ,इन वर्गों की समस्याओ ,पीछडेपन,का लाभ उठाने के लिए इन वर्गों मे कुछ ऐसे नेताओ की जमात खादी हो गई है जो तरह तरह के संगठन बनाने मे माहिर है एन केन सत्तारूढ़ दलों के नेताओ की जी हुजूरी कर उनसे नजदीकी बढ़ाना और निहित स्वार्थ के लिए उपयोग करना इनका शगल है ,कुछ तो कुछ पत्रिकाओ का प्रकाशन भी शुरू कर चुके है जिसमे उनकी जमात के लोगो का लेख या स्तुतिगन होता है , और सबसे बड़ी विडम्बना की बात यह है की ये सिर्फ़ शहरो मे केंद्रित रहते है आज भी छ ग मे ग्रामीण समाज की संख्या ज्यादा है पर इन्हे उनकी समस्याओ से लेना देना नही है ,