सोमवार, 9 जून 2008

फिर से सुबह होगी

अपनी ही जड़ोसे उखड कर पेड़ की क्या हालत होती है,सोचा है आपने,नही क्योकि हमे इसका अनुभव ही नही,भारत पक विभाजन की तीस इसके भुक्तभोगी ही समझ सकते है जिसके सगे रिश्ते नाते के लोग दुसरे देश मे रह गए और उनके बीच था एक कंटीली तारो वाला घेरा , कमोबेश आज वही स्थिति उन आदिवासियों की हो गई जो शिविर मे रह रहे है ,खेत घर द्वार सब पास मे लेकिन शरणार्थी की जिन्दगी जीने के बेबस लाचार,दो पाटो के बीच पीस रहे है, उनकी जिन्दगी की सुबह और शाम वही होती है,घने जंगलो मे विचारने वाले इन आदिवासियों की स्थिति बिलो मे कैद चूहे जैसी हो गई है,अब वो सिर्फ़ आस्मान मे सुरुज को उगता हुआ एवम अस्त होता हुआ देख सकते है ,आख़िर क्या दोष है इन आदिवासियों का,क्यो इन्हे ये दिन देखना पड़ रहा ,क्या लोगो को राजनीतिक रोटी सकने के लिए सिर्फ़ आदिवासी ही मिलते है,क्या फिर से वो सुबह आयेगी जब पंछे की भांति मुक्त गगन मे वे उड़ सके ,

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